तुम न जाने किस ज़हां में खो गए !

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यह विश्वास करना कठिन है कि देश की सबसे सुरीली आवाज आज हमेशा के लिए खामोश हो गई। भारतरत्न लता मंगेशकर हमारी सांगीतिक,सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की आवाज़ रही है। आवाज़ जो सदियों में कभी एक बार ही गूंजती है। आवाज़ जैसे सन्नाटे को चीरती हुई कोई रूहानी दस्तक। जैसे जीवन की तमाम आपाधापी में सुकून और तसल्ली के कुछ बहुत अनमोल पल। जैसे एक बयार जो देखते-देखते हमारी भावनाओं को अपने साथ ले उड़े। वर्ष 1947 में लता जी का पार्श्वगायन की दुनिया में प्रवेश भारतीय सिनेमा की सबसे बड़ी और युगांतरकारी घटनाओं में एक साबित हुई। अपनी शालीन, नाज़ुक, गहरी और रूहानी आवाज़ से उन्होंने लगभग सात दशकों तक हमारी खुशियों, शरारतों, उदासियों, दुख, हताशा और अकेलेपन को अभिव्यक्ति दी। प्रेम को सुर दिए। व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की। मानवीय भावनाओं और सुरों पर पकड़ ऐसी कि यह पता करना मुश्किल हो जाय कि उनके सुर भावनाओं में ढले हैं या ख़ुद भावनाओं ने ही सुर की शक्ल अख्तियार कर ली हैं। लता जी के बारे में कभी देश के महानतम शास्त्रीय गायक मरहूम उस्ताद बडे गुलाम अली खा ने स्नेहवश कहा था – ‘कमबख्त कभी बेसुरी ही नही होती।’ उस्ताद अमीर ख़ान कहते थे कि ‘हम शास्त्रीय संगीतकारों को जिसे पूरा करने में डेढ़ से तीन घंटे लगते हैं, लता वह बस तीन मिनट मे पूरा कर देती हैं।’ लता जी पर यह आरोप लगता रहा है कि उन्होंने अपने दौर की लगभग सभी गायिकाओं का रास्ता रोका था। अगर वह कई दशकों तक ऐसा कर सकीं तो इसकी वज़ह मात्र संगीत की उनकी राजनीति तो नहीं हो सकती। यह उनकी संगीत प्रतिभा का विस्फोट ही था जो न उनके पहले कभी देखा गया और न उनके बाद कभी देखने को मिला। यह स्वाभाविक है कि उनकी पार्थिव देह का विसर्जन देवी सरस्वती की प्रतिमाओं के विसर्जन के दिन ही हुआ।

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श्रद्धांजलि देश की इस महानतम गायिका को। हमारी पीढ़ी को गर्व रहेगा कि वह लता के युग में पैदा, जवान और बूढ़ी हुई।
ध्रुव गुप्त की फेसबुक वॉल से

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