हल्द्वानी रेलवे प्रकरण : सरकार की लचर प्रणाली का खामियाजा भुगतने को मजबूर 40 हज़ार जनता

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आज़ाद क़लम:- हल्द्वानी। एक मिडिल क्लास इंसान का पूरा जीवन लग जाता है परिवार, बच्चों के लिए एक छत बनाने में। लेकिन बच्चों के सिर से जब छत छिनने का खतरा मंडराता है तो उस परिवार के मुखिया पर क्या बीत रही होती है यह सिर्फ वो ही समझ सकता है। हल्द्वानी का अल्पसंख्यक बाहुल बनभूलपुरा इलाका आज उसी दहशत के दौर से गुज़र रहा है।

बुल्डोजर सरकारों के विकास का प्रतीक बन चुका है।

जिसका खौफनाक साया अब हल्द्वानी पर पड़ा है। 2007 का वो दौर लोगों को आज भी याद है जब रेलवे स्टेशन के पास से रेलवे ने अपनी ज़मीन पर बसी झुग्गी झोपड़ियों को तोड़ा था तो हज़ारों लोग एक झटके में रोड पर आ गए थे। बूढ़े बच्चे, महिलाएं मजबूर थीं सड़कों पर रात काटने के लिए। अब फिर से रेलवे की तलवार हज़ारों परिवारों पर लटक रही है। गफूर बस्ती ही इस बार निशाने पर नहीं है घनी आबादी का एक बड़ा भूभाग अतिक्रमण कहा जा रहा है।
जबकि क्षेत्र की हकीकत ये है रेलवे का 2007 में 29 एकड़ का था जो कि खतौनियों के आधार पर था पर अब विवाद का कारण रेलवे द्वारा लगभग 70 एकड़ पर दावा प्रस्तुत कर रहा है जिस कारण इसमें पट्टे ,नीलाम,फ्री होल्ड सरकारी व नजूल भूमि भी शामिल कर ली गई।जिससे लोग दहशत में है दूसरी और 3 सरकारी स्कूल ,वाटर हेड टेंक ,समुदायिक भवन जैसे सरकारी संस्थान जो अरबो की संपत्ति हैआख़िर रेलवे भूमि पर कैसे अतिक्रमण कर सकता है अवैध भूमि कैसे इन विभागों की हस्तांतरित हो सकती है ये भी पड़ताल के विषय है और इन सब पर नगर निगम की खामोशी चिंतनीय है
करीब पांच हजार घर-मकान कब्जा बताए जा रहे हैं। अगर इतनी संख्या में मकान तोड़े जाते हैं तो इसका मतलब यह होता है कि करीब 35 से 40 हजार की आबादी एक झटके में रोड पर खड़ी होगी। बच्चे, महिलाएं बेघर होंगे। विदित हो कि 2016 में रेलवे की इसी कथित ज़मीन का जिन्न जब निकला था तो रेलवे ने इलाके के एक बड़े हिस्से को अपनी ज़मीन बताकर आजाद नगर, लाइन नम्बर 17 से इंदिरानगर, गौजाजाली तक सीमांकन किया और निशान के तौर पर खंबे गाढ़े तो एक बड़ी आबादी इसकी जद में आ गयी।

2016 में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिली थी।

अल्पसंख्यक बाहुल इन इलाकों में ऑन रिकॉर्ड 50 हजार से ज्यादा आबादी है। यहां बसे लोगों का कहना है कि इंदिरानगर, आजाद नगर आदि जिस इलाके को रेलवे अपना बताता है उसपर वो दशकों से बसे हैं। कई स्कूल कॉलेज, मंदिर-मस्जिदें, मदरसे आदि एक ज़माने से यहां स्थापित हैं। अगर ज़मीन रेलवे की है तो यहां पर लंबे अरसे से सरकारी सहूलियतें लोग पाते रहे हैं। बिजली-पानी का बिल, हाउसटैक्स तक देते चले आए हैं। खुद सरकारों ने यहां पर विभिन्न योजनाओं पर अरबों रुपया बहाया है। सरकारी स्कूल, अस्पताल ऐसे ही नहीं बनवाए गए होंगे। ज़मीन अगर रेलवे की है और यहां बसे लोग अतिक्रमणकारी हैं तो अतिक्रमित क्षेत्र में कैसे सरकारी सहूलियतें प्रदान की गयीं। रेलवे ने कभी ऑब्जेक्शन नहीं किया।
कथित अतिक्रमण को हटाने के लिए उतावलापन दिखाया जा रहा है। इस कार्यवाही की प्रक्रिया में एक मानवीय पहलु को नजरअंदाज किया जा रहा है। वो ये कि 5 हजार परिवारों को उजाड़ने का मतलब है करीब 40 हजार या फिर उससे ज्यादा लोगों का बेघर हो जाना। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं रोड पर होंगे। अगर इन लोगों को उजाड़ा जाता है तो यह लोग कहां जाएंगे। स्कूली बच्चों का क्या भविष्य होगा क्योंकि इस कार्यवाही में कई स्कूल कॉलेज टूटेंगे। शिक्षकों का तो समायोजन सरकार करा देगी लेकिन बच्चों की पढ़ाई का क्या। बनभूलपुरा, इंदिरानगर इलाके में लोगों की रातों की नींद हराम है। रमज़ान का महीना चल रहा है लेकिन घर छिनने की हैबत ने इलाके से रमज़ान की रौनक छीन ली है। परिवार, बच्चों, महिलाओं के बारे में सोच-सोचकर लोग बदहवास से हुए जा रहे हैं। अतिक्रमण हटाने के लिए 30 से 40 करोड़ रुपया खर्च किया जाएगा। बेघर होने वाले लोगों के बारे में प्रशासनिक बैठक में बात निकलती है तो अधिकारी बोलते हैं कि यह हमारा विषय नहीं है। 40 हजार आखिर विषय किसका है?।

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