चुनाव के पहले नोटों के ढेर, क्‍या करेंगे नोटबंदी को कामयाब बताने वाले कागजी शेर!

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डॉ. संजीव मिश्र
वह कानपुर में रहता तो अपने आसपास वालों से भी मतलब न रखता। 80 किलोमीटर दूर कन्नौज वाले घर जाता तो स्कूटर पर घूमता। उसके राजनीतिक कनेक्शन भी लोगों ने तब जाना था, जब उसने सूबे के एक पुराने लंबरदार के साथ समाजवादी इत्र लांच किया। पर अब उसे पूरा देश जान गया है। हम बात कर रहे हैं, इत्र व्यापारी पीयूष जैन की, जिसके घर के जर्रे-जर्रे से नोट निकले हैं। पीयूष नोटों की निकासी के मामले में अकेला नहीं है। पीयूष के घर तलाशी के बाद समाजवादी पार्टी के विधायक सहित कई अन्य कारोबारियों के घरों पर छापे पड़े तो नोटों की बरसात सी हुई। अब इन नोटों को लेकर सियासत शुरू हो गयी है किन्तु यह गलत भी नहीं है। लो प्रोफाइल रहने वाले एक कारोबारी के घर से जब 300 करोड़ के आसपास धनराशि मिल जाए तो सियासत होगी ही। वह भी चुनाव से ऐन पहले जब दीवारें नोटों के ढेर उगलने लगें, तो सवाल भी उठेंगे ही।

कानपुर के व्यापारी पीयूष जैन के घर से नोटों का जखीरा बरामद होना सामान्य घटना नहीं है। वैसे जिस पीयूष जैन के घर से नोटवर्षा हुई है, उसे डेढ़ महीने पहले तक बस उसके कुछ रिश्तेदार या व्यापारिक साझीदार ही जानते थे। पीयूष जैन मूलतः कन्नौज के रहने वाले हैं। उसी कन्नौज के, जहां से समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव स्वयं सांसद रह चुके हैं।

पीयूष का कारोबार भले ही कन्नौज से कानपुर और फिर मुंबई से खाड़ी देशों तक फैल गया हो, किन्तु कन्नौज का समाजवादी कनेक्शन कहां पीछे छूटने वाला था। पिछले महीने समाजवादी पार्टी के विधायक पुष्पराज जैन के समाजवादी इत्र को स्वयं अखिलेश यादव ने लांच किया था। ऐसे में जब बमुश्किल डेढ़ महीने बाद इत्र व्यापारी पीयूष के आस-पास नोट ही नोट मिले तो लोगों ने उसे समाजवादी इत्र से भी जोड़ दिया।

उत्तर प्रदेश में जल्‍द ही विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनाव से ठीक पहले समाजवादी इत्र की लांचिंग से लेकर नोट पकड़े जाने के इस मसले पर हो रही सियासत तो कालांतर में शांत पड़ जाएगी, किन्तु नोटों की बरामदगी एक बार फिर तमाम सवाल खड़े कर रही है। जिस तरह नोटबंदी के बाद घरों में नोटों के भंडार कुछ कम होने की उम्मीद जगी थी, इन बरामदगियों ने वह उम्मीद भी धुंधली कर दी है।

यदि एक व्यापारी के घर में तीन सौ करोड़ रुपये की नकदी मिल सकती है, तो अभी कितने घरों में ऐसे ही नकदी छिपी होगी, यह नहीं कहा जा सकता।कानपुर-कन्नौज की इस बरामदगी ने एक बार फिर काले धन की मौजूदगी को भी याद दिलाया है। यह तय है कि आज भी लोग काला धन एकत्र कर रहे हैं। एक व्यापारी के पास इतनी अधिक धनराशि मिल सकती है, तो करोड़ों रुपये कहां-कहां छिपे होंगे, इसे समझना कठिन है।

इन स्थतियों में नोटबंदी के लक्ष्य की प्राप्ति न हो पाने और काले धन पर रोक न लग पाने जैसे सवाल उठने अवश्यंभावी हैं।हर चुनाव से पहले चुनाव आयोग लाखों-करोड़ों रुपये पकड़ने का दावा करता है किन्तु चुनाव में धनबल पर रोक लगाने में प्रभावी सफलता नहीं मिल पा रही है। इस बार रुपये उगलने वाली दीवारों का समाजवादी कनेक्शन सामने आ गया है, इसलिए अन्य राजनीतिक दल खुलकर आलोचना कर रहे हैं। कहा जा रहा है कि गरीबों का पैसा दीवारों से निकल रहा है। ऐसे में सिर्फ बातों से काम चलने वाला नहीं है।

उन सभी गड़बड़ लोगों की तलाश करनी होगी, जिन्होंने गरीबों से वसूला काला धन दीवारों में चुन रखा है। इसके अलावा यह समय चुनावों को धन बल, विशेषकर काले धन से मुक्ति का पथ प्रशस्त करने पर चिंतन का भी है। चुनावों में हर राजनीतिक दल पानी की तरह पैसे बहाता है। प्रत्याशी भी मनमाने ढंग से धन खर्च करते हैं। राजनीतिक दलों की चंदा उगाही भी सरकार केंद्रित ही होती है।

केंद्र सरकार इलेक्टोरल बांड के माध्यम से राजनीतिक दलों को चंदा देने का नियम बना चुकी है। पिछले कुछ वर्षों के इलेक्टोरल बांड का विश्लेषण करें तो केंद्र की सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को ही सर्वाधिक राशि मिली है। चुनाव सुधार के क्षेत्र में काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़ों की माने तो अनुसार वित्तीय वर्ष 2017-18 और 2019-20 के बीच तीन वित्तीय वर्षों में देश के सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड से छह हजार करोड़ से अधिक राशि प्राप्त हुई।

इसमें भी 65 प्रतिशत से अधिक भारतीय जनता पार्टी को मिली। इन तीन वित्तीय वर्षों में अंतिम दो वित्तीय वर्षों की तुलना करें तो वर्ष 2018-19 में भारतीय जनता पार्टी को इलेक्टोरल बांड से 1450 करोड़ रुपये मिले थे और वर्ष 2019-20 में यह राशि बढ़कर ढाई हजार करोड़ के आसपास पहुंच गयी थी।

ये हालात तब हैं, जबकि देश का चुनाव आयोग बार-बार पारदर्शी व ईमानदार व्यवस्था का दावा करता रहता है। चुनाव आयोग ने इलेक्टोरल बांड्स में भी पारदर्शिता लाने को कहा है किन्तु इस पर अमल होता नहीं दिखता। जमीनी धरातल पर भी चुनाव इतने महंगे हो गए हैं कि आम कार्यकर्ता चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं पाते। राजनीतिक दल भी टिकट वितरण के समय धन खर्च कर पाने की योग्यता को भी परखते हैं।

उत्तर प्रदेश सहित देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, तब ही हम देश की आजादी की 75वीं सालगिरह भी मनाने वाले हैं। आजादी के इस अमृत महोत्सव वाले वर्ष में हमें चुनाव पर हो रहे मनमाने खर्च पर लगाम लगाने की पहल भी करनी होगी। राजनीतिक दलों की तो इस दिशा में जिम्मेदारी है ही, आम मतदाता को भी देखना होगा कि कहीं वह धन के प्रलोभन व अधिक धन खर्च की चकाचौंध में आकर वोट का फैसला तो नहीं कर रहा है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो हम लोकतंत्र के मूल स्वरूप को खो बैठेंगे।

पहले ही धनबल व बाहुबल के आगे जनता निराश है, अब काले धन से चुनावी गणित का नियोजन खासा चिंताजनक प्रतीत हो रहा है। सरकारों को भी निरपेक्ष भाव से काले धन के खिलाफ मुहिम लानी होगी। साथ ही राजनीतिक दलों को भी टिकट वितरण में पैसे खर्च कर पाने जैसे मापदंडों से मुक्ति पानी होगी। ऐसा न हुआ तो चुनाव महज दिखावा बन जाएंगे और जनता काले धन की कठपुतली बनकर लगातार छली जाती रहेगी।

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