“घर की दहलीज की महत्ता”: “देली घैसना” की लुप्त होती परम्परा
उत्तराखंड राज्य में सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध परंपरा रही है इसलिए इसे देव भूमि के नाम से जाना जाता है।यहां जगह-जगह पर देवताओं का निवास माना जाता है इसलिये यहां की परंपरा में आध्यात्मिकता का समावेश ज्यादा रहा है। किसी क्षेत्र की परंपराएं वहां की संस्कृति और सभ्यता की स्पष्ट झलक दिखाती हैं। परंपराएं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अपने विश्वासों और रीति-रिवाजों को हस्तांतरित करती हैं।उत्तराखंड के कुमाऊँ क्षेत्र में प्राचीन काल से देली लिपाई की परम्परा चली आ रही है।
तू देली दैना है जाये त्वै देली म्यारा जौ हाथा,
देली तू द्वार भरि दीये फूलै जसि डावि हैजौ।
देली या देहरी,किसी भी भवन का प्रवेश द्वार होता है।घर में प्रवेश करते समय जहां पर पहली बार किसी व्यक्ति का पाँव पड़ता है वह देली कहलाता है।पिन्ड़ी,दहलीज,ड्योढ़ी,देहरी,देवी ये सब पर्यायवाची शब्द हैं।सनातन धर्म मे देली का बहुत अधिक महत्व होता है।यह प्रत्येक घर के सम्मान का सूचक है।हमारी सांस्कृतिक परम्पराएं और आबरू की रक्षक घर की देली होती है।यह हमारे रीति रिवाजों और परिवेश का ध्यान रखती है।इसे घर की लक्ष्मण रेखा कहा जाय तो अतिशयोक्ति नही होगी।यह घर मे नकारात्मक ऊर्जा को आने से रोकती है।देली घर मे आने वाली विघ्न बाधाओ और आसुरी शक्तियों से रक्षा करती है।घर मे आने वाले सभी मेहमानो,आगन्तुकों का स्वागत करती है।इसी स्थान से सकारात्मक ऊर्जा प्रवेश कर घर के सभी सदस्यों को सृजन के लिये प्रेरित करती है।
हमारे पर्वतीय क्षेत्रो में प्रत्येक शुभ अवसरों पर देली की लिपाई का कार्य किया जाता है जिसे कुमाउनी भाषा मे “देली घैसना” कहते है।कुमाऊँ क्षेत्र की परम्परा के अनुसार देली की लिपाई कर उसे सुन्दर और आकर्षक बनाना आवश्यक होता है जिससे यह पूर्णतया दोष रहित होकर सकारात्मक ऊर्जा को ही घर मे प्रवेश करवाती है।यहां संक्रांति,मासान्ती,पुन्यू,एकादशी,अमावस्या और अन्य धार्मिक अवसरों पर देली की लिपाई का कार्य किया जाता है।इसके लिये मातायें प्रात:नौला जाकर स्नान करने का पश्चात गाय के ताजा गोबर को मिट्टी मे सानकर देली की लिपाई करती हैं।उसके बाद दोंनों किनारों पर हजारी के पुष्प रखे जाते है और अक्षत तथा दाड़ीम की पाती से पूजन किया जाता हैं।जब तक लिपाई के बाद पुष्प से पूजा ना कर ले कोई उसे लाँघता भी नही है।यदि हम वैज्ञानिक आधार देखते है तो गाय का गोबर वैज्ञानिक और पौराणिक दृष्टि से भी सर्वश्रेष्ठ बताया गया है।इससे देली की लिपाई करने पर हमारे घर पूर्णतया कीटाणुरोधी हो जाते हैं।किसी भी प्रकार के परजीवी,मच्छर,मक्खी,कीटाणु,टी0वी0 के वायरस घर के अंदर प्रवेश नहीं कर पाते हैं,अर्थात देली को गाय के गोबर से घैसने पर घर के अंदर पवित्रता,शुद्धता निरोगता प्रविष्ट हो पाती है।
बचपन मे जब इजा लोगों को देली घैसते देखते थे हमें समझ मे आ जाता था आज शायद कुछ अच्छा दिन है और शायद पूड़ी या खीर खाने को मिलेगी और कुछ देर बाद पंडित ताऊ जी भी आ जा जायेन्गे।हमारा ये अनुमान सच साबित होता था।दशहरा,दीवाली,नवरात्री,बसंत पंचमी,तुलसी पूजा के अवसर पर तो देली को एपण देकर विशेष आकर्षक बनाया जाता था।जब घर पर कोई शादी ब्याह या बर्तपन होता था तो बच्चों को एपण बनाने के लिये बुलाया जाता था।घर के सभी कमरों मे हम गेरू और एपण लगा लेते थे लेकिन देली के एपण आमा खुद ही लगाती थी।देली के एपण मे किसी भी प्रकार की त्रुटि मान्य नही होती थी इसलिये वह कार्य बुजुर्ग अपनी देख रेख मे ही किया करते थे।
मान्यता है घर की देली मे 33 करोड देवी देवता निवास करते है ।यदि देली अच्छी लिपी होगी तभी लक्ष्मी घर मे प्रवेश करती है और घर मे सुख समृद्धी का संचार होता है।
घर के बुजुर्गों द्वारा देली मे अनेक कार्यों कों ना करने की मान्यतायें बताई जाती थी।यथा देली पर खड़ें होकर बाल काटना,नाखून काटना,पैर पटकना,रोना और खाना खाना वर्जित माना जाता है।किसी मेहमान का स्वागत देली के अंदर की ओर खड़ा होकर शंख बजाकर करते हैं।यदि आसमान मे बिजली गरज रही हो तो देली मे खड़ा नहीं रहते है।देली मे खड़े होकर दान देना अच्छा माना जाता है।”देली दान महा दान”कहा जाता है।
नवरात्रीयों के दौरान गांव मे बने मन्दिरों मे प्रत्येक दिन देली लिपाई का कार्य किया जाता है।यह कार्य मन्दिर के मुख्य पुजारी या ब्रती द्वारा ही किया जाता है।जब शादी के बाद दुल्हन का घर मे पदार्पण होता है उस समय भी उससे घर की देहरी को लिपाया जाता है।दूल्हे की बहिनें अपने मायके की देली की रक्षा के लिये खड़ी रहती है जिसे “देली गोटाई” कहते है।नई दुल्हन अपनी हथेली को दही मे डुबोकर उसकी छाप लगाती है और देली की नेक के रूप मे दक्षिणा अपनी ननदों को देती है।कहीं-कहीं पर अन्न से भरा पात्र भी दुल्हन द्वारा देली मे उड़ेला जाता है। तपश्चात ही दुल्हन का घर मे प्रवेश कराया जाता है।चेली-बेटी अपने ससुराल से मायके को जाते समय अपने मायके की और मायके जाते समय ससुराल की देली अवश्य पूँजती हैं।
कुमाऊँ के पर्वतीय क्षेत्रों मे किसी की मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी और आसौच वाले व्यक्ति द्वारा वार्षिक श्राद्ध होने तक हर रोज गाय के गोबर से देली की लिपाई करनी होती है।उसके बाद जौं और तिल से देलीपूजा की जाती है।
सामान्यत: पर्वतीय क्षेत्रों मे प्रत्येक घरों मे देली लिपाई की जाती रही है।सभी घरों मे चाहे घर क्षतिग्रस्त,घास पूस का या पत्थर की छ्त वाला हो लेकिन देली सर्वथा सुन्दर व आकर्षक होती थी।पूर्व मे लगभग सभी घरों मे मिट्टी का फर्श ही रखा जाता था।जिस मकान के बाहर सीमेंट भी लगा होगा लेकिन फर्श और देली हमेशा मिट्टी वाला ही होती थी।धीरे-धीरे समय बदलता गया और हर कोई सीमेंट और कन्क्रीट का प्रयोग ही करने लगा है।अब नब्बे प्रतिशत मकानों मे घर आंगन,फर्श,देली सब कन्क्रीट की बनाई जा रही हैं और “देली घैसना” जैसी परम्परा लुप्त होती जा रही है। नवीन जनरेशन को पैट,गते,जैसे दिनों को समझ पाने मे असमर्थता होती है,उसकी जगह अन्ग्रेजी कलेन्डर ने ले ली है जिससे संक्रांति,एकादसी जैसे पर्व नई पीढ़ी नहीं पहचान पाती है।अब पूर्व की भाँति तीज त्यौहारों मे पुरोहितों का भी गांव-गांव भ्रमण बन्द सा हो गया है केवल बड़े आयोजनों मे ही वह यजमानो के घर पहुंचते हैं।सीमेंट के घरों मे रोज पोछा लगाया जा रहा है।देली मे भी पोछा लग जाता है।इन कारणों से देली घैसना अब विलुप्ति के कगार पर है।कुछ परिवारों मे सीमेंट की देली बनाने पर उसे लाल सफेद पेंट से ऐपण लगाकर पहचान अवश्य बनाई जा रही है।धार्मिक अवसरों के अवसर पर उसमें पोछा लगा दिया जा रहा है।
किसी भी क्षेत्र की सांस्कृतिक परम्पराए/रीति रिवाज उसके गौरवशाली व समृद्ध अतीत की प्रमाण होती हैं, जिसकी नींव पर सुनहरे संस्कारवान भविष्य की कल्पना साकार होती है।इन रीतिरिवाजो को भावी पीढ़ी के लिए सहेजना हर नागरिक का कर्तव्य होता है।अपनी पुरातन सभ्यताओं को आने वाली पीढ़ी को बताना आवश्यक है।हमें कोशिश ही नही यह संकल्प भी लेना चाहिए कि हम अपनी सांस्कृतिक रीति रिवाजों का संरक्षण और प्रचार प्रसार आने वाली पीढ़ी व मानवता के हित में करेंगे जिससे एक संस्कारवान समाज का निर्माण हो सके।
(त्रिलोचन जोशी, नशामुक्ति अभियान टनकपुर,. लेखक राजकीय हाईस्कूल छीनीगोठ मे शिक्षक है)