हांस्य-व्यंग्य: हा-हा ही-ही हो-हो होरी रे….
गोरे चेहरे में टेड़ा मुह । आकार-प्रकार में तो सीधा इस्तेमाल करते बखत टेड़ा। किसी भी सीधी बात का भले ही वह प्रकाश की चाल से ही क्यों ना चली आ रही हो जवाब टेड़ा। बात का बतंगड बनाने का हुनर। जैसे स्किल इंडिया के पूर्व छात्र रहें हो। कुत्ते की दुम को भी मिल-जुल कर सीधा किया जा सकता है भले ही वो आभासी दुनियां में हो लेकिन इधर क्या मजाल टेड़ी बात सीधी कर सकें। क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम भी दिखाया, मित्र मंडली ने जीवन की ऊंच-नीच समझायी। परिणाम शिफर। आदत से मज़बूर। अपने को ताकतवर दिखाने की कमज़ोरी। डाउन टू अर्थ उनका विपरीत शब्द। और मज़े की बात पर्यायवाची कोई नही। आखिर कॉपी तो उसकी होती हैं जो ओरिजिनल हो। सब मिलावट ही मिलावट। अगर कोई नही मिल सका तो वह हैं बासन्ती रंग और फ़ाग। इस रंग में रंग गए होते तो एक जैसे लग रहे होते। आपके चेहरे पर नही रंगों पर ध्यान होता । और जिस पर निगाह मेहरबां होती, चर्चा बस उसकी होती। ऐसा नही सभी अवगुणों हो, लेकिन गुण बेचारे बैसाखी लिए माठू-माठ (धीरे-धीरे) रास्ता नाप रहे होते हैं। आखिर दिखेगा वही जी दौड़ेगा, नाचेगा, गुनगुनयेगा। बिल्कुल होल्यारों की तरह। सफेद टोपी,सफेद लिबास जिसमें फाल्गुनी रंग बनायेअपना निवास। हाथों में इंद्रधनुषी रंग लिए अवगुणों को
पोतने जिससे ढक जाय बेरंग। और निकल जाय उजाले के रंग, ढोल-दमुआ बाजे-खाजे के संग, डंडे पर चढ़ा मां भगवती की निशान और चौर गाय की पूछ। इतना काफी होता है रंग चढने के लिए। और इसमें चढता भी ऐसे जैसे मई-जून के महीने में चढ़ता पारा। और जब एक बार चढ़ता उतरने का नाम कम ही लेता हैं। मयखाने के सोमरस की तरह नही जो कमबख्त चंद घंटों में साथ छोड़ देती। ऊंचाई किसे पसंद नही?। फिर ये तो होली का रंग जो हुआ। लाल,काला, हरा, भूरा, सफेद सब मिलकर सबकी एक हो जाते, पहचान बना देते । आइडेंटिटी क्राइसिस ख़त्म हो जाती हैं। जिधर से(प्रकृति) आये थे उसी के संग रंग में घुल जाते है। जैसे एक बीज जमीं से बेइंतहा मोहब्बत कर वृक्ष बन जाते जात-पात, ऊंच-नीच, वर्ण क्षेत्र का अंतर शून्य हो जात।समीकरण बैलेंस बन जाता । हल होने की प्रायिकता बढ़ जाती हैं। उम्मीदों को पंख और आशा हिलोरे मारने लगती हैं। एक रंग का इतना विशाल असर। जो बड़े -बड़े एटम बम, हाइड्रोजन बम मिलकर भी ना कर सकें। बड़े बड़े तीसमारखाँ देखते ही रह गए। रंग जब पड़ने लगे तो वो भी रंगों से खेलने लग गए। और देखते-देखते टेड़े मुह भी रंगों से सीधे दिखने लग गए। सब एक जैसे लगने लग गए। विभिन्न नस्लों , कोठों में बटा होमोसपीएन्स आज बाहर आकर आज़ादी के रंगों के साथ खेलने लग गए। आज वह जीत रहा हैं क्योंकि उसने एक होने के लिए खेला हैं।
हा- हा ही -ही हो -हो होली रे, हो होली होली रे,शुभ होली हो होरी रे।
प्रेम प्रकाश उपाध्याय “नेचुरल” पिथौरागढ,उत्तराखंड